Sunday 22 May 2016

Insaniyat



रोजाना का वही मेरा बस का सफर और रोजाना होने वाली छोटी- घटनाएं जो हमेशा की तरह मुझे सोचने पर मजबूर कर देती है.आज भी कुछ ऐसा ही हुआ.

                        बस स्टैंड पर एक लड़की ने किसी लड़के से उसका फ़ोन माँगा और कहा "भैया , प्लीज मुझे अपना फ़ोन दे दो मेरे फ़ोन की बैटरी डिस्चार्ज हो गई है. मुझे मेरे घर पर फ़ोन करना है अर्जेंट। ..प्लीज मेरी मदद करो." लड़का बेचारा कोई भला आदमी था उसने तुरंत उस लड़की को फ़ोन दे दिया। लड़की ने कुछ देर मोबाइल यूज़ करने का नाटक किया और जब कुछ देर बाद लड़के ने अपना फ़ोन वापिस माँगा तो लड़की ने जो जवाब दिया वो चौकाने वाला था.

लड़की बोली " आप है कौन ? मैं आपको जानती ही नहीं , और ये फ़ोन मेरा है। आप ज्यादा बद्तमीजी करेंगे तो मैं चिल्लाकर अभी यहाँ भीड़ इकठ्ठा कर दूंगी. इतना कहते ही लड़की जोरों से चिल्लाने लगी और पल भर में ही वहां लोगो की भीड़ जमा हो गई। लड़का ये हंगामा देख के सहम गया फिर भी वो कुछ कहना चाहता था लेकिन उसके कुछ कहने से पहले ही लोगो ने उसे बुरी तरह से पीट दिया। किसी ने उसकी बात नहीं सुनी।

हमारे देश की सबसे पुरानी समस्या है ये.. मसला चाहे कोई भी हो लोग बिना सुने-समझे ही पीटना शुरू कर देते है..अपनी भड़ास निकलने का शायद यही एक तरीका है उनके पास. लेकिन मज़े की बात ये है की भड़ास की वजह कुछ और ही होती है और वो गुस्सा कही और निकलता है...इससे कहते है "किसी के फटे में टांग अड़ाना " जो हमारे यहाँ के लोगो को बेहतरीन आता है.

लेकिन बात यहाँ खत्म कहा होने वाली थी। लड़के को बुरी तरह पीटकर जब मन भर गया तो उससे पूछा "बोल भाई, अब बोल तू क्या बोल रहा था.." बेचारा लड़का रोते- बोला "मेरी कोई गलती नहीं है , ये मेरा ही मोबाइल है आप लोग चाहो तो देख लो. इसमें मेरी फोटो है, मेरा सिम कार्ड है, मेरे जानकारों के मोबाइल नंबर है, मैं झूठ नहीं बोल रहा, मेरा यकीं करो". इतना सुनकर सब बोले कि "अरे! ये तो  पुलिस का मैटर है उनको बुलावो. चलो ले चलो इनको थाने"

जब थाने पहुंचकर लड़की का मोबाइल चेक हुआ तो उसमे ना लड़के की फोटो थी और ना सिम कार्ड। सब और भड़क गए और लड़के को ही दोष देने लगे। पुलिस ने भी धमकाया और हमेशा की तरह   मामला लेदेकर निपट गया. बेचारा लड़का हज़ारों का मोबाइल गया और हज़ारों में पुलिस से पीछा छूटा।

लेकिन हकीकत तो कुछ और ही थी.. जितना वक़्त हमारी "जनता की अदालत" ने उस लड़के को पीटने में लगाया उतनी देर में लड़की ने मोबाइल रिसेट किया, अपनी सिम डाली और सारे साबुत मिटा दिए. ये है हमारे देश की हकीकत जहां सच झूठ में और झूठ सच में बड़ी आसानी से बदला जा सकता है.

लेकिन एक और हकीकत थी इस घटना के पीछे वहां स्टैंड पे खड़ी कुछ ग्रामीणऔरतें जो इस बात की गवाह थी की लड़के की कोई गलती नहीं है फिर भी उन्होंने कुछ नहीं किया और जिस बस में मैं बैठी थी वहां वो औरतें लड़कियों को मिलने वाली आजादी और सरकार की और से चलायी जा रही सारी योजनाएं जो लड़कियों को प्रोत्साहित करती है उसपे भाषण देने लगी.

वो बोली " जी, हमने खुद देखा था, लड़की बहुत तेज थी, बेचारे लड़के की कोई गलती नहीं थी, उस लड़की ने ही मोबाइल माँगा था , बेचारे लड़के को झूठा फंसा दिया , आजकल सरकार भी इन छोरियों  को सर चढ़ा रही है, क्या करेंगी ये पढ़-लिखकर , मोबाइल देते ही क्यों है इनको, जाने कितने यार फंसाती है ये, पहले ही अच्छा था जब लड़की घर रहती थी, अब निकालो इनको बाहर ये तो कांड ही करेंगी रोज-,....."

"हे भगवान्। कान पक गए मेरे सुन- के 30 मिनट के सफर में उन औरतों ने सिर्फ लड़कियों की ही बुराईया की. मुझे एक बात समझ नहीं आती। अगर उस लड़की की जगह कोई आदमी ये कांड करता तो क्या उसकी आजादी पे भी रोक लगाई जाती नहीं ना? क्यूंकि ये पुरुषप्रधान देश है और सबको लगता है की मैं कुछ ज्यादा ही नारीवादी हूँ...लेकिन बात नारीवाद की नहीं है। दरअसल मैं कुछ ज्यादा  ही संवेदनशील हूँ. हर छोटी- बात की गहराई समझती हूँ. भावनाओं को महत्व देती हूँ और बस यही चाहती हूँ कि हम लड़कियों को लोग इंसान की नजर से देखे तो हमें भी नारीवादी होने की जरुरत नहीं पड़ेगी और अपराध की जिम्मेदार सिर्फ लड़कियां ही नहीं है, लोगो की इंसानियत मर गयी है इसलिए अपराध बढ़ रहे है और मेरे हिसाब से इंसान होना जरुरी है लडका या लड़की होना नहीं. पहले इंसानियत को जिन्दा करो अपराध खुद--खुद मर जायेंगे.

Tuesday 15 March 2016

आजादी

                                

"एक भारतीय नवविवाहिता ने लगाया अपने पति पर रेप का आरोप" सोशल साइट्स पर ये खबर पढ़ते ही मैं चोंक गयी. ये क्या हो रहा है मेरे महान भारत में, भारत तो पुरुषप्रधान देश है ना, पापा हमेशा कहते थे तो आज वहाँ एक औरत की बात सुनी जा रही है. उसके लगाये आरोपों को कानूनन रजामंदी मिल रही है लेकिन उन लोगों की घटिया मानसिकता का क्या जो आज भी औरत को सिर्फ औरत ही समझते है , उसके सपने,उसकी मर्जी सब बेमानी है. क्यों औरत को एक इंसान नहीं समझते। आज फिर एक बार मन में छिपी वो घुटन मुझे बेचैन कर रही है. दूर परदेश में बैठे हुए भी मैं उस लड़की के दर्द को महसूस कर सकती हूँ लेकिन वो लोग जो उसके करीब है, उसके "महान भारत " में रहते है वो आज भी भद्दी और व्यंगपूर्ण बातें कहकर अपना फर्ज निभा रहे है।आज फिर एक शादी ने एक लड़की के सपनों का गला घोंट दिया। अतीत की वो यादें आज एक-एक करके मेरे सामने चित्रित हो गयी.

दुल्हन की तरह सजा कमरा दुल्हन से ज्यादा खुबसूरत लग रहा था। मेरा रंग-रूप बहुत साधारण था आज भी मैं हमेशा की तरह उतनी ही साधारण दिख रही हूँ "मैं आशिमा "।आज मेरी शादी "सार्थक" के साथ हुई थी. "सार्थक "एक कंपनी में बड़े पद पर कार्यरत था और मैं अपना ग्रेजुएशन पूरा करके घर बैठी थी अपने होने वाले  दुल्हे का इंतज़ार कर रही थी. मैं अपनी खुद की पहचान बनाना चाहती थी लेकिन किसी की पत्नी होना शायद ज्यादा महत्वपूर्ण होता है. अपने परिवार की इसी सोच को मानकर मैंने अपने सपनों का दमन कर दिया। ये शादी हम दोनों के परिवारवालों ने मिलकर तय की थी. मेरे मन में बहुत से सवाल और उलझन थी.
अचानक किसी ने कमरे के अंदर प्रवेश किया। ये वो इंसान था जिसे मैं ठीक से जानती भी नहीं लेकिन कुछ वक़्त पहले इसी के साथ मैंने अपना पूरा जीवन साथ निभाने का वादा किया था. शादी, रिश्ते, फेरे, वचन मेरे लिए सब बेमानी थे. मेरी सोच बहुत आजाद थी लेकिन अपने घरवालो की ख़ुशी के लिए मैंने हमेशा खुद को बांधकर रखा. आज मेरा कन्यादान करके वो भी मुक्त हो गए लेकिन मैं इस बंधन को मरते दम तक निभाऊँगी.

 " मुझे तुम पसंद नहीं हो, ये शादी मेरी मर्जी से नहीं हुई है , मुझे छोड़ दो. मुझे आज़ादी चाहिए, मैं ये रिश्ते , जिम्मेदारियां ,ये बंधन नहीं निभा सकता, मुझे मुक्त कर दो प्लीज़।‘’ अपने मन में उठे सवालों के तूफान को थामते हुए मैंने उनसे सिर्फ इतना  कहा "ठीक है , जैसी आपकी मर्जी। लेकिन क्या हम दोस्त बन सकते है? " वो बिना कुछ बोले ही सो गए और मैं रात भर यही सोचती रही की मेरी गलती क्या है. उन्हें मुझसे आजादी चाहिए. "आजादी" के मायने शायद मुझे नहीं पता हो लेकिन इसकी अहमियत मैं अच्छे से जानती हूँ। अपनी खुशियों को छोड़कर जिसके साथ इस शादी के बंधन को मैंने निभाने का मैंने फैसला किया था वो मुक्ति चाहता है।  


शादी में मुझे यकीं नहीं था फिर भी एक साथी की चाहत तो थी .हमेशा से मेरा विश्वास था की एक दिन कोई खास मेरी ज़िन्दगी में आएगा. ढेर सारी खुशिया और अपनापन जो मुझे कभी नहीं मिला। लेकिन मेरा वो जीवनसाथी मेरा सबसे अच्छा दोस्त होगा जो मेरी तकलीफें,मेरा दर्द समझेगा. अकेलेपन का दर्द जो मैं इतने सालों  से  झेल रही  हूँ। शायद वो समझे उसे और मेरा दर्द बाटें। इन तनहाइयों से आजाद होना था मुझे लेकिन ये तो  खुद मुझसे आजादी मांग रहा है अपनी। 

शादी कि रस्मों के दौरान इनके चेहरे के तनाव को मैं साफ़ पढ़ सकती थी लेकिन खुश तो मैं भी नहीं थी। आज इनकी परेशानी कि वजह जानती हूँ लेकिन क्या करूँ कुछ समझ नहीं आता . मैं जानती थी की ये खुश नहीं है इनकी बातों  में छिपे मतलब समझते हुए भी मैं अनजान रही।  ये जानते हुए की मैं इनके लायक नहीं हूँ।  मैं खुद को इस रिश्ते से बांधकर रखा। मेरी घरवालो की ख़ुशी , उनकी इज्ज़त  मेरे लिए मायने रखती थी। खुद को कुर्बान तो कर दिया था उनके लिए अब कुछ नहीं बचा था मेरी ज़िन्दगी में।  एक आखिरी सपना भी टूट गया आज. "मेरे जीवनसाथी का सपना"

"अरे आशिमा ! तू तो बड़ी समझदार है. तू हर रिश्ता बहुत अच्छे  से निभाएगी। " मेरे दोस्तों का यही मानना था।
अब ये जो अपना है मेरा वो भी आजादी चाहता है.
सुबह होने वाली थी लेकिन रात का अँधेरा अब तक मेरी ज़िन्दगी में था। मैंने फैसला कर लिया था अगर अकेलापन ही मेरी किस्मत है तो ठीक है मैं रह  लुंगी अकेले सारी  ज़िन्दगी।  लेकिन रिश्तों की इस नौटंकी में अब तक जो किरदार निभाया था मैंने उसे कैसे बदलूं।  मैं तो आज भी वही कमजोर , लाचार , हालातों से मजबूर लड़की हूँ।  आज भी मैं इन बन्धनों को नहीं तोड़ सकती।  आज भी मेरी आजादी की चाहत अधूरी है.



     इनका फैसला तो मैं जान चुकी थी. अब मेरी बारी थी इन्हे अपना फैसला सुनाने की।  मैंने बहुत सोचा रात भर कि आखिर क्या करू कैसे हल निकलू इस मुश्किल का।  मेरे लिए अपने परिवार कि ख़ुशी मायने रखती है और अब इनके परिवार से जुड़ने के बाद मेरा उनकी ख़ुशी का ख्याल रखना भी लाजमी है।  मैं क्यों इतना सोच रही हूँ।

 "मुझे नहीं करनी शादी " इनके ये शब्द शादी से पहले भी मेरे मन में तूफान मचा देते थे।  नया रिश्ता जुड़ने कि ख़ुशी, नए लोगो से लगाव मैंने कुछ भी महसूस नहीं किया था दिल से।  बस निभाना  था मुझे हर रिश्ता बिना किसी शिकायत के।

"आप मुझे थोडा वक़्त दीजिये , मैं आपकी ज़िन्दगी से चली जाऊँगी जितना जल्दी हो सके उतना जल्दी "
मैंने अपना फैसला सुना दिया था।  अब बस अकेले रहना है सारी ज़िन्दगी।  मैं हमेशा से विदेश जाना चाहती थी क्योंकि वहाँ शायद मुझे ये रिश्तों कि घुटन से मुक्ति मिले। 
रिश्तों से मिले कड़वेपन से मुझे नफरत होने लगी है। प्यार रिश्तों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। 

मैंने इनसे वादा लिया कि मैं बहुत आसानी से आपकी ज़िन्दगी से जाना चाहती हूँ।  इसलिए कभी किसी से कुछ मत कहना जब तक मैं विदेश ना चली जाऊँ।  उसके बाद आपसी सहमति से हम ये रिश्ता खत्म कर देंगे।  अगर मैं  यहाँ रही तो हम दोनों के परिवारवाले हमें एक करने कि कोशिश करेंगे और एक बार फिर से मज़बूरी में हमें ये रिश्ता अपनाना पड़ेगा।  मैं नहीं चाहती कि मेरी मौजूदगी आपको आपकी मज़बूरी का एहसास करवाये। 
आज एक बार फिर से मैंने कोशिश कि अपनी समझ से सब ठीक करने कि लेकिन इस बार मैंने जो फैसला लिया वो मुझे बहुत सुकून दे रहा था 
सार्थक हमेशा अपने काम कि वजह से घर से बाहर रहते थे।  अब मैंने भी अपने कॅरियर पर ध्यान देना शुरू किया। शुरुवात एक छोटी सी नौकरी से की. फिर आगे पढाई जरी रखी औ
र विदेश के लिए अप्लाई किया। पाँच सालों की मेहनत रंग लायी और मैं एअरपोर्ट पर बैठी अपने प्लेन का इंतज़ार कर रही थी। 
ख़ुशी के मारे मेरे कदम लगातार आगे बढ़ रहे थे।  कहीं मन में दर्द भी था कि काश ! आज मेरा परिवार मेरे साथ होता। कोई अपना जो मेरे सपनों और मेरी आज विदेश जाने कि ख़ुशी को समझता।
"रुको आशिमा! प्लीज मत जाओ !" मैंने मुड़कर देखा तो सार्थक था.
"मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ।  बस एक बार सुन लो। मैं जानता हूँ कि मुझसे गलती हुई है. मुझे तुम्हे समझने का एक मोका देना चाहिए था।  लेकिन सच आज मैं दिल से ये रिश्ता आगे बढ़ाना चाहता हूँ. मैंने हमेशा अपनी ज़िन्दगी अपने तरीके से जी है , शादी करके मैं वो आजादी खोना नहीं चाहता था. लेकिन इतने सालों तुमने मुझे कभी नहीं बांधा, तुमने कभी मुझपर कोई हक़ नहीं जताया लेकिन अब बस अब मैं बंधना चाहता हूँ।  मुझे ये आजादी नहीं तुम्हारा साथ चाहिए। मैं भी चाहता हूँ कि मेरा घर हो, परिवार हो। मुझे अकेला छोड़कर मत जाओ प्लीज। "

अब ये कौन है जो मेरे सामने खड़ा है।  ये वो इंसान तो नहीं है जिसके साथ मैं पांच साल रही हूँ।  क्योंकि इन गुजरे सालों में मैंने कभी वो अपनापन महसूस नहीं किया जो आज इसकी आँखों में है।  लेकिन सच तो ये है  कि मैं इस शक्श से भी उतनी ही अनजान हूँ जितनी उस इंसान से थी जिससे मेरे घरवालों ने मेरी शादी की थी।
आज-तक सार्थक ने अपनी मर्ज़ी से ज़िन्दगी जी और आज जब मैं अपनी मर्जी कि ज़िन्दगी जीने जा रही हूँ तो वो रोक रहा है मुझे।  क्या मुझे हक़ नहीं है अपने हिस्से कि खुशियां जीने का।
" तुम्हारे भीतर आया ये बदलाव मुझे अच्छा लगा सार्थक ! चलो अब कोई तो है जिसके मन में मेरे लिए अपनापन है. लेकिन मैं तुमसे प्यार नहीं करती। इतने सालों में मैंने कभी कोशिश नहीं की तुमसे कोई रिश्ता बनाने की. लेकिन एक उम्मीद थी कि शायद कभी तुम मुझे समझो।  लेकिन तुम्हारे पास कभी वक़्त ही नहीं रहा मेरे लिए।  हर दिन मेरी उम्मीद टूटी है सार्थक , और इन पांच सालों ने मुझे एहसास करवाया कि प्यार रिश्तों से ज्यादा महत्वपूर्ण है।  प्यार हो तो  रिश्ता भी बन जाता है लेकिन रिश्ता होकर भी प्यार का ना होना , बहुत तकलीफ देता है और मैंने हर बार इस तकलीफ को महसूस किया है।  बस अब ये मेरी ज़िन्दगी का आखिरी रिश्ता है।  मुझे भी आजादी चाहिए या तो इन रिश्तों से या इस ज़िन्दगी से।  रिश्तों से मिले कड़वेपन से मुझे नफरत होने लगी है।